यह तो सब कोई जानता है कि भारत मे कानून बनाने और कानून खत्म करने का अधिकार भारतीय संसद को है। जजों का काम बने हुए कानून के आधार पर फैसला सुनाना है। लेकिन यह आजकल उल्टा हो गया है। जज अपनी विचारधारा और अपनी पसंद से फैसले सुना रहे हैं और एक ही झटके मे अपने आदेश से पुराने कानून को खत्म कर रहे हैं।
समलैंगिकता और व्यभिचार से संबंधित कानून को खत्म करना इसका ताजा उदाहरण है। मुस्लिम पर्सनल लाॅ होते हुए भी जजों के कई फैसले भी इसके खिलाफ पाए गए हैं।PO
मेरा मानना है कि जजों को अपने फैसले बने हुए कानून के आधार पर देना चाहिए न कि अपनी पसंद और अपनी विचारधारा के आधार पर। किसी कानून को खत्म करने और नया कानून बनाने का काम संसद पर छोड़ देना चाहिए।