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Friday, December 27, 2013

मौत की तैयारी कर लें

हर इंसान को चाहिये कि अपनी मौत से पहले अपनी मौत की तैयारी कर ले. मौत की तैयारी का मतलब यह नही कि अपनी क़ब्र खोदकर रखी जाये या दाह-संस्कार की सामग्री जुटा कर रखी जाये बल्कि मौत की तैयारी का मतलब यह है कि जिंदा रहते रहते पूर्ण रूप से अच्छाई पर चला जाये और बुराई से दूर रहे. मौत के बाद इंसान न तो एक अच्छाई कर सकता है और न ही बुराई. मौत से पहले पहले किये हुये कार्यों पर ही उसके भाग्य का फैसला होगा.
    मित्रों, यह 60-70 साल की जिंदगी सिर्फ एक परीक्षा है. इस परीक्षा मे जो पास हो गया वही कामयाब है. इसी 60-70 साल की जिंदगी मे किये गये कार्य पर मरने के बाद की असंख्य सालों की जिंदगी का फैसला होगा. जिसने यहाँ की जिंदगी अपने ईश्वर के दिशा निर्देशों के अनुरूप गुजारी, वह असंख्य सालों वाली जिंदगी आराम और सुकून से गुजारेगा और जिसने यहाँ की जिंदगी मनमाने ढंग से बुराइयों की राह पर चलकर गुजारी उसके लिये वह जिंदगी बड़ा ही कष्टदायक होगा.
   इसलिये मित्रों, हम हर हाल मे कोशिश करें कि हम हमेशा नेक काम करें और बुराई से दूर रहें. चोरी, डकैती, बेईमानी, भ्रष्टाचार, यौन शोषण, बेगुनाहों के साथ मार पिट, कत्ले आम आदि ईश्वर के नजदीक बड़े गुनाह हैं और ह्मे हर हाल मे इससे बचने की कोशिश करना चाहिये.
  हर इंसान एक दूसरे से मित्रवत व्यवहार करे. ग़रीबों और कमजोरों की मदद करने वाले बनें. ताक़त हो तो अपनी ताक़त से बुराई को रोकने वाले बनें, इतनी ताक़त ना हो तो बातों से रोकने की कोशिश करें, यह भी न हो सके तो बुराई को बुराई समझने और मानने वाले बनें.


  हमारा ईश्वर हमसे क्या चाहता है, यह जानने वाले बनें और फिर ईश्वर की इच्छाओं पर चलने वाले बनें. दोनो संसार की कामयाबी का यही मूल मंत्र है.

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Sunday, December 22, 2013

मुसलमानों के मसीहा या दुश्मन

मुलायम सिंह यादव के लिये 'मौलाना मुलायम' या 'मुसलमानों के मसीहा' जैसे विशेषन सबने सुना होगा. लेकिन यह विशेषन क्या सचमुच उन पर सटीक बैठता है या कुछ लोगों ने मुसलमानो को बेवकूफ बनाने के लिये ऐसा प्रचारित किया है.
    लोगों की राय अलग अलग हो सकती है लेकिन मैं तो उन्हे ' मुसलमानों के दुश्मन' के तौर पर ही देखता हूँ. ये मुसलमानों के लिये 'मीठा ज़हर' हैं जबकि नरेन्द्र मोदी 'कड़वा ज़हर'. कड़वा ज़हर तो पिया ही नही जाता जबकि मीठा ज़हर पीकर अपना नुकसान किया जा सकता है.
    मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुये जब कारसेवकों पर गोलियाँ चलवाई थी, तभी से वे भोले भाले मुसलमानों के लिये मसीहा बन गये.लेकिन इस गोलीकांड को मैं न सिर्फ मुसलमानों के लिये बल्कि समाजवादी और वामपंथी विचारधारा सबको नुकसान पहुँचाने का सबसे बड़ा कारण मानता हूँ. इसी गोलीकांड के बाद भाजपा की ताकत पूरे देश मे अचानक बढ गई और पूरे देश मे साम्प्रदायिकता की लहर फैल गई. अगर वे चाहते तो कारसेवकों को पूर्व से ही घटना स्थल पर पहुंचने नही देते और अगर पहुंच भी गये तो लाठियाँ भाँजकर, हवाई फायरिंग कर और अश्रु गैस छोड़कर उनको भगाया जा सकता था. लेकिन उन्होने हिंसक तरीके को अपना कर परोक्ष रूप से भाजपा की मदद की.
  बाद मे उनकी छिपी हुई 'साम्प्रदायिक नीतियों' की पोल तब भी खुली जब बाबरी मस्जिद के विध्वंस के जिम्मेदार कल्याण सिंह को अपनी पार्टी मे लिया.
  अब रही सही कसर मुज़फ़्फरनगर के दंगे ने कर दी. जिस कदर कई दिनो तक पुलिस मूकदर्शक बनकर दंगाइयों को खुली छूट दी उसकी भारी कीमत अगले चुनाव मे उनको चुकानी पड़ेगी. राहत कैंपों मे भी बलात्कारियों का घुसना, बड़ी मात्रा मे बच्चों का इलाज और दवा के अभाव मे मरना और डर की वजह से शरणार्थियों का वापस घर न लौटना समझदारों के लिये बहुत कुछ इशारा करती है.    
उत्तर प्रदेश के चुनाव के वक्त उन्होने मुसलमानों के लिये आरक्षण देने की भी घोषणा की थी पर सरकार बन जाने के बाद अभी तक उस पर अमल नही किया गया.


   हक़ीक़त यही है कि मुलायम सिंह यादव मुसलमानों को सिर्फ वोट के लिये इस्तेमाल करते हैं और कल्याण ज़्यादातर अपने परिवार और यादवों का करते हैं.

Wednesday, December 18, 2013

मजबूरी का नाम तलाक हो

ऋत्विक रोशन और सुजैन खान की शादी टूटने के बाद तलाक का विषय फिर चर्चाओं मे है. कभी आमिर खान, सैफ अली खान, अज़हरुद्दीन भी तलाक के लिये चर्चा का विषय बने थे. कुछ मियां बीवी आपसी सहमति से अलग हो जाते हैं और कुछ के झगड़े इतने बढ जाते हैं कि मामला पुलिस और कोर्ट तक पहुंच जाते हैं. कुछ दिन पहले युक्ता मुखी का मामला सुर्खियों मे था.          
           तलाक का नियम हर मजहब मे और विश्व के हर कोने मे है और यह नियम भी पुराना है. मियां बीवी अगर साथ हों तो एक कमरा, एक बेड शेयर करते हैं. ठंडी का मौसम हो तो एक ही रजाई या कंबल भी शेयर करते हैं. ऐसे मे अगर दो दिल ना मिलें या दोनो के विचारों मे आसमान जमीन का फर्क हो तो बात बनती नही बल्कि बिगड़ने लगती है.
       अगर तलाक मजबूरी बन जाये तो बेहतर यह है कि मियां बीवी शांतिपूर्वक और आपसी सहमति से अलग अलग होने का फैसला करे. पुलिस और कोर्ट तक बात पहुंचने से दोनो का नुकसान होता है. कुछ मजबूरिया मैं गिनाना चाहूंगा जिसमे तलाक अच्छा विकल्प है.
१. जब पत्नी को पति के अलावे किसी और से प्यार हो जाए और उससे शारीरिक संबंध भी रखे. ऐसी हालत मे पत्नी को चाहिए की अपनी मजबूरी अपने पति को बताए. कोई भी पति ऐसी हालत मे पत्नी को अपने पास ज़बरदस्ती नही रखना चाहेगा और आपसी सहमति से अलग हुआ जा सकता है.

२. पति की शारीरिक शक्ति और इच्छा रोज संबंध बनाने की हो पर पत्नी सप्ताह मे एक या दो बार से ज़्यादा बनाने नही देती. ऐसे मे पत्नी को चाहिए कि वह अपनी फ्रीक़वेंसी बढ़ाए और पति को खुद से दूर होने से बचाए और बुराई से बचाए. अगर यह भी संभव न हो तो पति को एक और शादी करने का ऑफर दे और यह भी संभव ना हो तो बेहतर है कि अलग होने का फ़ैसला किया जाए.

३. अगर पति की जिंदगी मे पत्नी के अलावा कोई और आ जाए तो पहली कोशिश उसको भूलने की होनी चाहिए क्योंकि आपके प्यार की हक़दार आपकी बीवी है. अगर यह संभव न हो तो पत्नी से बात कर दोनो को रखने की कोशिश करें और यह भी संभव न हो तो पत्नी से अलग होना मजबूरी है.
        ये तो नमूने हैं. मजबूरियाँ कई तरह की हो सकती है. लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि अलग होते वक़्त पति पत्नी एक दूसरे का हक़ अदा करें और कोई किसी को न सताए. अगर बच्चे हों तो उनका ध्यान दोनो को रखना है, उन पर आप दोनो के अलगाव का कोई असर नही आना चाहिए.

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Sunday, December 15, 2013

दिल्ली के चुनाव नतीजे और मुसलमान

दिल्ली हमारे भारत की राजधानी है, कुछ लोग इसे भारत का दिल भी कहते हैं. जब भारत की राजधानी क्षेत्र मे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े मुसलमानों को सही प्रतिनिधित्व नही मिल रहा तो दूर दराज के राज्यों और क्षेत्रों का कहना ही क्या.

11.72 मुस्लिम आबादी वाले इस राजधानी क्षेत्रमे इस बार विधान सभा के चुनाव मे सिर्फ़ ५ मुस्लिम प्रत्याशी विजयी हुए. ७० सीटों वाले इस विधानसभा मे ५ का जितना सिर्फ़ ७.१४% है. ये नतीजे मुसलमानों के पिछड़े होने और उनके साथ होनेवाले भेद भाव को दर्शाते हैं. अगर इस राजधानी क्षेत्र मे भी समुचित भागीदारी नही मिलेगी तो दूसरे जगहों पर इंसाफ़ की उम्मीद कैसे की जाए.


इन पांच जीते प्रत्याशियों मे चार कॉंग्रेस के हैं और एक जद-यू का. भाजपा तो समुचित टिकट ही नही देती तो उनकी बात करना ही बेकार है. 'आप' के लहर मे भी 'आप' से कोई मुस्लिम प्रत्याशी क्यों नही जीत सका, यह चिंता जनक और विचारणीय प्रश्न है. भाजपा के सी. एम. प्रत्याशी के सामने 'इशरत अंसारी' को खड़ा करना क्या 'आप की सिर्फ़ नाम करने वाली नियत' को नही दर्शाता? उनके खिलाफ केजरीवाल खुद क्यों नही खड़ा हुए या किसी और मजबूत प्रत्याशी को क्यों ना खड़ा किए?

दूसरे राज्य के चुनाव नतीजे तो मुसलमानों के भागीदारी के लिए और भी बुरे हैं. इन नतीजों को आप भी ( इलेक्शन कमिशन की साइट) पर देख सकते हैं. सर्व जन हिताय की बात करने वालों को इस पर गौर करना चाहिए और दबे कुचले, पिछड़े मुसलमानों के कल्याण के लिए ठोस उपाय करना चाहिए.

Friday, December 13, 2013

'आप' बनाए सरकार

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद यह स्पष्ट है 'आप', भाजपा और कॉंग्रेस मे से कोई भी दो पार्टी मिलकर सरकार बना सकती है. चूँकि भाजपा और कॉंग्रेस के मिलने की कोई संभावना नही बनती, इसलिए दो विकल्प ही सामने है. पहला आप कॉंग्रेस के साथ मिलकर बनाए और दूसरा आप और भाजपा मिले. दूसरा विकल्प अपनाने पर आप का भविष्य मे दाँव कमजोर पड़ जाएगा क्योंकि नतीजों से साफ है कि भाजपा के वोटर तो भाजपा के साथ ही रहे पर कॉंग्रेस के धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और वामपंथी विचारों वाले मतदाता कॉंग्रेस से खिसककर आप से जुड़ गये. अगर आप ने भाजपा से तालमेल किया तो इसका नुकसान अगले चुनाव मे ज़रूर पड़ेगा. अभी आप के हित मे यही है कि कॉंग्रेस से मिलकर सरकार बनाए.

            जैसा कि रिपोर्ट आ रही है कि आप सरकार बनाने के मूड मे नही है तो मुझे तो यह आप का आत्मघाती कदम लगता है.

सरकार बनाने के ठोस कारण निम्नलिखित हैं:

१. दुबारा चुनाव मे भी किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिले, यह ज़रूरी तो नही.
२. वक़्त के साथ समीकरण भी चेंज होते रहते हैं, जनता का मूड भी चेंज हो सकता है और दुबारा चुनाव मे आप की सीटें घट भी सकती है.
३. सरकार नही बनाने पर पार्टी टूट भी सकती है, विधायकों की खरीद फ़रोख़्त भी हो सकती है जिसका फ़ायदा भाजपा को मिलने की संभावना है.
४. दुबारा चुनाव से जनता पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा जिसका ज़िम्मेदार आप होगी.
५. आप पार्टी नई है और उसकी संरचना अभी कमजोर है. लोकसभा के साथ चुनाव हुए तो पार्टी इसे ठीक से सम्हाल नही पाएगी.

Friday, December 6, 2013

फ़तवा: मीडिया और हक़ीक़त

मीडिया को फ़तवे का हौआ खड़ा करते अक्सर देखा होगा लेकिन क्या फ़तवा वही है जो मीडिया पेश करते आया है. दरअसल फ़तवा वह नही है जो मीडिया ने बता रखा है बल्कि यह किसी भी मसले या समस्या का एक धार्मिक व्याख्या है जो कि इस्लाम धर्म की रोशनी मे इस्लाम के मानने वाले विद्वान 'मुफ़्ती' द्वारा दिया जाता है.

यह फ़तवा किसी के मांगने पर दिया जाता है और यह जटिल विषयों के लिये होता है पर आजकल इसका दुरुपयोग आम बात हो गयी है. फ़तवा इस्लाम पर पूरी तरह अमल करने वाले और पढ़ाई मे मुफ़्ती का खिताब हासिल करने वाले द्वारा ही दिया जा सकता है और यह अधिकार इमाम, मौलवी, मौलाना, हाफ़िज़ और क़ारी तक को नही है.
यह दुर्भाग्य की बात है कि इमाम बुखारी और दूसरे मौलाना के राजनीतिक 'सलाह' को फ़तवा कह दिया जाता है. 'फलां पार्टी को वोट दो' एक सलाह है ना कि फ़तवा. आप इसे मान भी सकते हैं और नही भी, यह आपके विवेक पर निर्भर है. इसे एक 'सलाह' से ज्यादा कुछ नही समझना चाहिये.
हर व्यक्ति का अपना ओपीनियन होता है, अपनी सोच होती है. हम और आप भी एक दूसरे को मशवरा देते रहते हैं. यह इंसान की फितरत है. लेकिन नेक इंसान वह है जो नेक मशवरा दे. खुद भी नेक अमल करें और दूसरों को नेक अमल करने का मशवरा दें. यह धर्म है. सभी धर्म का सार यही है कि खुद भी अच्छाई को अपनाएं और दूसरों को अच्छाई की दावत दें. यह काम पहले पैगंबर किया करते थे, अब इंसान को ही करना है क्योंकि अब पैगंबर नही आने वाले. इसलिये एक ईश्वर के संदेश को, अच्छाई, सच्चाई और शान्ति के पैगाम को लोगों तक पहुँचाया जाये.
फ़तवे का उपयोग तभी किया जाये जब किसी मसले पर इस्लाम का नजरिया सामान्य रूप से उपलब्ध ना हो. आम मुसलमानों से भी आग्रह है कि क़ुरान और हजार हदीसों का अनुवाद पढ़कर हम फ़तवा देने वाले ना बनें बल्कि उन मुफ़्ती का क़द्र करें जो इस्लाम को बचपन से ही पढ और सीख रहे हैं और अमल भी कर रहे हैं.


http://www.darululoom-deoband.com/ और  http://www.darulifta-deoband.org/  वेबसाइट पर जाकर दारुल उलूम देवबंद के द्वारा दिये गये फतवों को पढ़ा जा सकता है. आप चाहें तो पूछ भी सकते हैं.

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