मीडिया को फ़तवे का हौआ खड़ा करते अक्सर देखा होगा लेकिन क्या फ़तवा वही है जो मीडिया पेश करते आया है. दरअसल फ़तवा वह नही है जो मीडिया ने बता रखा है बल्कि यह किसी भी मसले या समस्या का एक धार्मिक व्याख्या है जो कि इस्लाम धर्म की रोशनी मे इस्लाम के मानने वाले विद्वान 'मुफ़्ती' द्वारा दिया जाता है.
यह फ़तवा किसी के मांगने पर दिया जाता है और यह जटिल विषयों के लिये होता है पर आजकल इसका दुरुपयोग आम बात हो गयी है. फ़तवा इस्लाम पर पूरी तरह अमल करने वाले और पढ़ाई मे मुफ़्ती का खिताब हासिल करने वाले द्वारा ही दिया जा सकता है और यह अधिकार इमाम, मौलवी, मौलाना, हाफ़िज़ और क़ारी तक को नही है.
यह दुर्भाग्य की बात है कि इमाम बुखारी और दूसरे मौलाना के राजनीतिक 'सलाह' को फ़तवा कह दिया जाता है. 'फलां पार्टी को वोट दो' एक सलाह है ना कि फ़तवा. आप इसे मान भी सकते हैं और नही भी, यह आपके विवेक पर निर्भर है. इसे एक 'सलाह' से ज्यादा कुछ नही समझना चाहिये.
हर व्यक्ति का अपना ओपीनियन होता है, अपनी सोच होती है. हम और आप भी एक दूसरे को मशवरा देते रहते हैं. यह इंसान की फितरत है. लेकिन नेक इंसान वह है जो नेक मशवरा दे. खुद भी नेक अमल करें और दूसरों को नेक अमल करने का मशवरा दें. यह धर्म है. सभी धर्म का सार यही है कि खुद भी अच्छाई को अपनाएं और दूसरों को अच्छाई की दावत दें. यह काम पहले पैगंबर किया करते थे, अब इंसान को ही करना है क्योंकि अब पैगंबर नही आने वाले. इसलिये एक ईश्वर के संदेश को, अच्छाई, सच्चाई और शान्ति के पैगाम को लोगों तक पहुँचाया जाये.
फ़तवे का उपयोग तभी किया जाये जब किसी मसले पर इस्लाम का नजरिया सामान्य रूप से उपलब्ध ना हो. आम मुसलमानों से भी आग्रह है कि क़ुरान और हजार हदीसों का अनुवाद पढ़कर हम फ़तवा देने वाले ना बनें बल्कि उन मुफ़्ती का क़द्र करें जो इस्लाम को बचपन से ही पढ और सीख रहे हैं और अमल भी कर रहे हैं.
http://www.darululoom-deoband.com/ और http://www.darulifta-deoband.org/ वेबसाइट पर जाकर दारुल उलूम देवबंद के द्वारा दिये गये फतवों को पढ़ा जा सकता है. आप चाहें तो पूछ भी सकते हैं.
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